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श्री घटिकाचल हनुमत्स्तोत्रम् || Shri Ghatikachala Hanumat Stotram || Ghatikachala Hanumat Stotra

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श्री घटिकाचल हनुमत्स्तोत्रम् || Shri Ghatikachala Hanumat Stotram || Ghatikachala Hanumat Stotra

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श्री घटिकाचल हनुमत्स्तोत्रम् || Shri Ghatikachala Hanumat Stotram || Ghatikachala Hanumat Stotra

॥ श्रीघटिकाचलहनुमत्स्तोत्रम् ॥

ब्रह्माण्डपुराणतः स्तोत्रं

अतिपाटलवक्त्राब्जं धृतहेमाद्रिविग्रहम् ।

आञ्जनेयं शङ्खचक्रपाणिं चेतसि धीमहि ॥ १॥

श्रीयोगपीठविन्यस्तव्यत्यस्तचरणाम्बुजम् ।

दरार्यभयमुद्राक्षमालापट्टिकया युतम् ॥ २॥

पारिजाततरोर्मूलवासिनं वनवासिनम् ।

पश्चिमाभिमुखं बालं नृहरेर्ध्यानसंस्थितम् ॥ ३॥

सर्वाभीष्टप्रदं नॄणां हनुमन्तमुपास्महे ।

नारद उवाच

स्थानानामुत्तमं स्थानं किं स्थानं वद मे पितः ।

ब्रह्मोवाच ब्रह्मन् पुरा विवादोऽभून्नारायणकपीशयोः ॥

तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु ।

एकमासाद्वरदः साक्षात् द्विमासाद्रङ्गनायकः ॥ १॥

मासार्धेन प्रवक्ष्यमि तथा वै वेङ्कटेश्वरः ।

अर्धमासेन दास्यामि कृतं तु परमं शिवम् ॥ २॥

घटिकाचलसंस्थानाद्धटिकाचलवल्लभः ।

हनुमानञ्जनासूनू रामभक्तो जितेन्द्रियः ॥ ३॥

घटिकादेव काम्यानां कामदाता भवाम्यहम् ।

शङ्खचक्रप्रदो येन प्रदास्यामि हरेः पदम् ॥ ४॥

घटिकाचलसंस्थाने घटिकां वसते यदि ।

स मुक्तः सर्वलोकेषु वायुपुत्रप्रसादतः ॥ ५॥

ब्रह्मतीर्थस्य निकटे राघवेन्द्रस्य सन्निधौ ।

वायुपुत्रं समालोक्य न भयं विद्यते नरे ॥ ६॥

तस्माद्वायुसुतस्थानं पवित्रमतिदुलर्भम् ।

पूर्वाब्धेः पश्चिमे भागे दक्षिणाब्धेस्तथोत्तरे ॥ ७॥

वेङ्कटाद्दक्षिणे भागे पर्वते घटिकाचले ।

तत्रैव ऋषयः सर्वे तपस्तप्यन्ति सादरम् ॥ ८॥

पञ्चाक्षरमहामन्त्रं द्विषट्कं च द्विजातिनाम् ।

नाममन्त्रं ततः श्रीमन् स्त्रीशूद्राणामुदाहृतम् ॥ ९॥

तत्र स्नात्वा ब्रह्मतीर्थे नत्वा तं वायुमन्दिरे ।

वायुपुत्रं भजेन्नित्यं सर्वारिष्टविवर्जितः ॥ १०॥

सेवते मण्डलं नित्यं तथा वै ह्यर्धमण्डलम् ।

वाञ्छितं विन्दते नित्यं वायुपुत्रप्रसादतः ॥ ११॥

तस्मात्त्वमपि भोः पुत्र निवासं घटिकाचले ॥ ११॥

नारद उवाच

कथं वासः प्रकर्तव्यो घटिकाचलमस्तके ।

केन मन्त्रेण बलवानाञ्जनेयः प्रसीदति ॥ १२॥

विधानं तस्य मन्त्रस्य होमं चैव विशेषतः ।

कियत्कालं तत्र वासं कर्तव्यं तन्ममावद ॥ १३॥

ब्रह्मोवाच

ब्रह्मतीर्थे ततः स्नत्वा हनुमत्संमुखे स्थितः ।

द्वादशाक्षरमन्त्रं तु नित्यमष्टसहस्रकम् ॥ १४॥

जपेन्नियमतः शुद्धस्तद्भक्तस्तु परायणः ।

निराहारः फलाहारो ब्रह्मचर्यव्रते स्थितः ॥ १५॥

मण्डलं तत्र वस्तव्यं भक्तियुक्तेन चेतसा ।

ध्यानश्लोकं प्रवक्ष्यामि शृणु नारद तत्वतः ॥ १६॥

तमञ्जनानन्दनमिन्दुबिम्बनिभाननं सुन्दरमप्रमेयम् ।

सीतासुतं सूक्ष्मगुणस्वदेहं श्रीरामपादार्पणचित्तवृत्तिम् ॥ १७॥

एवं ध्यात्वा सदा भक्त्या तत्पादजलजं मुदा ।

चतुर्थांशेन होमं वा कर्तव्यं पायसेन च ॥ १८॥

विधिना विधियुक्तस्तु विदित्वा घटिकाचलम् ।

जगाम जयमन्विच्छन्निन्द्रियाणां महामनाः ॥ १९॥

एवं नियमयुक्तः सन् यः करोति हरेः प्रियम् ।

विजयं विन्दते देही वायुपुत्रप्रसादतः ॥ २०॥

इति ब्रह्माण्डपुराणतः श्रीघटिकाचलहनुमत्स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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